बड़खल झील वी सीमित नहीं है। अकृतिक व तंत्रविकता के संर भी जुड़ा है। इसलिए ध्यान में रखना चाहिए। प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की विशिष्टता को समझे बिना इसका संरक्षण मात्र पर्यटन तक ही यह हमारे जीवन यह माल हमेशा
गौरतलब है कि एक समय यही बभुना की उपविका के रूप में, प्रवासी और स्थानीय पक्षियों, जलीय जीव को प्राकृतवास भी प्रदान विद्यापीरती थी। बमुना की उपत्यका एवं स्थानीय वातावरण के अनुरूप यहां जो वाणी स्थानीय पक्षी बसेरा डाले रिहा करती सोनाकारण भलीभांति परिचित रहते थे, दूसरे इसी वजह से वह हमारे मित्र पक्षी सिद्ध होते थे। खासियत यह कि यहां रोजी पोस्टर भी आती थी और गौरैया जैसे धनी भी काफी संख्या में बसेरा बनाए रखती थी। यह दोनों पक्षी प्रजातियां टिग्री दल को परास्त करने में अहम भूमिका निभाती थी और उनके प्रकृति विरोधी भक्षण को शून्य बनाती थी। आज इसमें बगुला प्रजाति की संख्या बढ़ाना नहीं, अपितु मित्र पतियों के आगमन को सुगम बनाने की बेहद जरूरत है जो वातावरण को दूषित करने वाले कीटों का मक्षण कर सकें। बड़खल के विकास में प्रकृति का प्रारूप न विगते, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
सरकार ने बड़खल की झाड़ियों को काटने की योजना बनाई या फिर नीम-पीपल जैसे उपयोगी पेड़ों को भी काटने की। सरकार ने तो झाडियों की आड़ में नीम-पीपल जैसे शतायु एवं पक्षी प्रिय वृक्षों को भी काट दिया है। इससे बड़खल का कल्याण होगा या सिर्फ ठेकेदारों का, यह बात सहज समझ में आ जाती है। वे वृक्ष जो प्रकृति संरक्षण का प्राथमिक बिंदु हैं जल के मित्र हैं, पक्षी आवास है, बड़साल की सांस हैं, स्वास्थ्य हैं, उनको क्यों काट दिया गया है? यह समझ से परे और दुर्भाग्यपूर्ण है। यह किस दृष्टि से बड़खल को बधाने और उसके संरक्षण की योजना का विज्ञान है और कौन से जल विशेषज्ञों ने ऐसी सलाह दी, यह सवाल आज भी समझ से बाहर है कि आखिर उनका मंतव्य क्या है?
साथ ही यह भी कि इन झाड़ियों, कीकर और पेड़ों को काटने का ठेका कितने में दिया है और इसके मूल्यांकन का गणित क्या है? यह भी जानना जरूरी है और इससे हुई आमदनी भी क्या और कितनी होगी और उसे सरकारी खजाने में भी जमा किया जाएगा या नहीं या फिर केवल राजस्थानी मुरंड, जो इस हेतु मंगाई जा रही है, का ही खर्चा लिखा जायेगा? यह सवाल भी अनसुलझा है।
जैसा कि ज्ञात है कि सरकारी योजनों में बड़खल में मुरंड डालने की योजना है। मुरंड या मुरंडा एक ऐसी मिट्टी है जो कि छोटे कंकड़ों के गलने से चूने के रूप में बदलने से बनती है। सीमेंट से तो पानी रिस भी सकता है परंतु गुरंड से नहीं। इसलिए इस पर कोई वनस्पति भी नहीं होती। क्या इन योजनाकारों को ऐसी जानकारी भी है कि इस मिट्टी का स्वभाव व मूल प्रवृत्ति प्रसार की है, राजस्थानी मिट्टी का स्वभाव भूगर्भ के अनुसार होगा। बड़खल में इस मिट्टी को डालना किसी भी दृष्टि से नम भूमि संरक्षण (wetland conservation) के अनुरूप नहीं है और वह उसको बढ़ावा भी नहीं देगी। इससे न तो कभी भूजल (ground water) बढ़ेगा और फिर इन हालात में झील की सततता और प्रकृति संरक्षण की बात बेमानी होगी ? यह इस योजना में शामिल विशेषज्ञों की विद्वता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। बड़खल ने सदैव अपने आपको क्षेत्रीय नहीं, अपितु राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किया है। इसका इतिहास गवाह है-पारम्परिक जल संचय प्रणालियों के संरक्षण और रखरखाव का इतिहास विशेष रूप से बल्लबगढ़ के आस-पास